Nature Conservation Foundation
चुनौती और संगठन
Nature Conservation Foundation भारत के वन्यजीवों के संरक्षण में मदद करने के लिए रिसर्च करता है और स्थानीय समुदायों और सरकारों के सहयोग से संरक्षण की रणनीतियां बनाता है. यह लुप्तप्राय प्रजातियों जैसे हिम तेंदुआ और हाथी के साथ−साथ वन्यजीवों के दूसरे रूप जैसे मूंगा के लिए काम करता है. यह उनके आवासों को भी संरक्षित करता है.
फ़ाउंडेशन को अपने सीमित संसाधनों का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करना चाहिए, ताकि यह डेटा की मैपिंग और विज़ुअलाइज़ेशन के लिए सबसे नई सस्ती टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर सके. फ़ाउंडेशन के एक वैज्ञानिक, एमडी मधुसूदन कहते हैं, यही वजह थी कि हमने Google Earth Engine को अपने शोध में मदद के लिए चुना.
वे कहते हैं, “दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक के एक टाइगर रिज़र्व बांदीपुर नैशनल पार्क में आग से हुए नुकसान को समझने से लेकर, रेनबर्ड कही जाने वाली चिड़िया पाइड कुकु (चितकबरी कोयल) के प्रवास पर नज़र रखने के लिए, Google Earth Engine हमारे लिए एक बढ़िया प्लैटफ़ॉर्म रहा है. यह शानदार आंकड़ों की क्षमताओं वाला एक बहुत बड़ा डेटा संग्रह है. इसमें ऐसा बहुत कुछ है जिससे हम यह जान पाते हैं कि इससे क्या-क्या किया जा सकता है."
उन्होंने यह कैसे किया
Google Earth Engine से मदद पाने वाले फ़ाउंडेशन के प्रोजेक्ट में से दो बांदीपुर नैशनल पार्क में हैं. पहले प्रोजेक्ट में साल 2017 की गर्मियों में आग से हुए नुकसान की गंभीरता का पता लगाया गया. हर साल गर्मियों में लोगों की वजह से नैशनल पार्क में आग लग जाती है. कभी−कभी आग इतनी गंभीर होती है कि जंगली जानवर खतरे में पड़ जाते हैं और पार्क को इस नुकसान से उबरने में कई साल लग जाते हैं. मधुसूदन कहते हैं, "आग कब और कहां लगी और उससे कितना नुकसान हुआ, यह जानना आग की रोकथाम के तरीके की योजना बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है."
नुकसान का आकलन करने के लिए, उन्होंने आग लगने से पहले ली गई Google Earth Engine में पार्क की सैटेलाइट इमेज के साथ शुरुआत की और आग लगने के बाद में ली गई इमेज के साथ उनकी तुलना की. आग के बाद की तस्वीरों में गहरा धुंआ नज़र आ रहा था जिन्हें उन्हें हटाना था. ऐसा करने के लिए, उन्होंने उन दर्जनों तस्वीरों की तुलना की जो साफ़ दिनों में ली गई थी और जो गहरे धुएं वाले दिनों में ली गई थी. Google Earth Engine की कम्प्यूटेशनल ताकत का इस्तेमाल करके, वह पूरे पार्क में आग से हुए नुकसान की सबसे सटीक तस्वीरें सामने लाने के लिए बिना गहरे धुएं वाली तस्वीरों को एक-साथ दिखा सकते थे.
इस तरह, मधुसूदन इस बात का अनुमान लगाने में कामयाब रहे कि आग लगने के कुछ दिनों के भीतर ही कितना नुकसान हुआ और असर कितना ज़्यादा था. वे कहते हैं. “Google Earth Engine के बिना, इसका पता लगाने के लिए तस्वीरों को खरीदने में महीनों का समय और बहुत ज़्यादा पैसे लगते. साथ ही, देरी की वजह से आग की गंभीरता को जानना और समय पर सही अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता."
मधुसूदन ने बांदीपुर में जंगल को होने वाले नुकसान को कम करने के लिए चलने वाली संरक्षण गतिविधियों के असर का आकलन करने के लिए Google Earth Engine कैटलॉग में टाइम सीरीज़ डेटा का अच्छा फ़ायदा उठाया. साल 2003 में, नम्मा संघ नाम के एक संगठन ने इंसानों की वजह से होने वाली जंगलों की कटाई को कम करने के लिए एक प्रयोग शुरू किया. संघ ने जंगलों के आस−पास रह रहे लोगों को सस्ते दामों पर गैस मुहैया कराई, ताकि वे खाना पकाने के लिए पेड़ों को न काटें. एनसीएफ़ यह जानना चाह रहा था कि क्या नम्मा संघ के कोशिशों को सफलता मिली है.
मधुसूदन ने साल 1973 और 2001 के बीच जंगल के नुकसान की जांच की थी जिसमें उन्होंने पाया कि इसका ज़्यादातर हिस्सा उन सीमाओं के पास था जहां लोग जलाने के लिए लकड़ियां काटते थे और मवेशी चराने आते थे. अब, Google Earth Engine की सैटेलाइट इमेज के विशाल टाइम सीरीज़ संग्रह का इस्तेमाल करते हुए, वे हर साल सैटेलाइट इमेज के एक बड़े ढेर में "सबसे हरा" पिक्सल लेकर यह जांच कर सकते थे कि क्या वहां हरी-भरी जगहों में लगातार बढ़ोतरी हुई. उन्होंने पाया कि खाना पकाने के लिए गैस मिल जाने के एक साल बाद, पार्क की सीमा के किनारे वनस्पति का दायरा धीरे−धीरे बढ़ रहा था, जबकि पार्क के अंदरूनी हिस्सों में ज़्यादा बदलाव नहीं देखा गया. इससे पता चला कि नम्मा संघ की कोशिशों से वाकई फ़ायदे मिल रहे थे.
मधुसूदन ने कई दूसरे प्रोजेक्ट के लिए भी Google Earth Engine का इस्तेमाल किया. इसमें चातक पक्षी के प्रवास (Clamator jacobinus) को ट्रैक करना शामिल है. पौराणिक कथाओं में इसके बारे में कहा गया कि यह सीधे बादलों से पानी पीता है. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर पक्षियों की निगरानी के डेटासेट का इस्तेमाल करते हुए पक्षी के प्रवास के पैटर्न का पता लगाया और पाया कि वे पक्षी भारतीय मानसून के आगे बढ़ते समय उसका पीछा करते हैं. दूसरे मामले में, उन्होंने मैसूर शहर के लिए एक पक्षियों का एटलस बनाने के लिएGoogle My Maps का भी इस्तेमाल किया है. यह भारत का पहला आम लोगों का तैयार किया पक्षी−एटलस प्रोजेक्ट था. साथ ही, वे भारत में मिलने वाले एशियाई हाथी की आबादी को ट्रैक करने के लिए Google Earth Engine, 'Google समाचार' फ़ीड और Google Maps के संयोजन का इस्तेमाल करके प्रयोग कर रहे हैं. वे खास तौर पर संरक्षित क्षेत्रों के बाहर खतरे में पड़े इन हाथियों की मौजूदगी को ट्रैक कर रहे हैं.
असर
मधुसूदन कहते हैं, "इन प्रोजेक्ट का मुख्य असर उस क्षमता पर हुआ है जिससे मज़बूत जानकारी के आधार पर प्रबंधन और नीतियों को बेहतर बनाया जा सकता है. सरकारी अधिकारी और संरक्षण समूह भी इन कामों के असर का आकलन कर सकते हैं, ताकि जंगलों को बचाया जा सके और खत्म हो रही प्रजातियों को सुरक्षित रखा जा सके." उदाहरण के लिए, Nature Conservation Foundation की ओर से बांदीपुर नैशनल पार्क में किए विश्लेषण के आधार पर, इस बात के पुख्ता सबूत मिले कि बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई में कमी आ रही थी. इसकी वजह गांव में जलाने के लिए लकड़ी की जगह कम लागत वाली रसोई गैस का ज़्यादा आसानी से मिलना है. वे कहते हैं, "यह जानकर हमारा भरोसा बढ़ता है कि यह एक ऐसा उपाय है जो संरक्षण में मदद कर सकता है."
वे कहते हैं, "Google Earth Engine बहुत बड़े डेटा संग्रह को बेहतरीन कंप्यूटिंग पावर से जोड़ता है. यह एक ऐसा संग्रह है जिसमें हर एक LandSat इमेज अपने-आप और असरदार ढंग से कैप्चर की गई है. लेकिन, यह महसूस करना कि आपके पास इस तरह के एक संग्रह को प्रोसेस करने के लिए शानदार कंप्यूटिंग पावर का ऐक्सेस है और आप एक ब्राउज़र विंडो के भीतर ऐसा कर सकते हैं, यह अपने-आप में चौंकाने वाली बात है. बेशक, इससे हमें कई ऐसे सवालों के जवाब देने में मदद मिल सकती है, जिनके जवाब ज़रूरी हो जाते हैं. लेकिन, जो वाकई गेम चेंजर है वह यह है कि हम अब ऐसे सवाल पूछ सकते हैं जिन्हें पहले पूछना संभव नहीं था."